मंगलवार, 16 नवंबर 2021

किपलिंग ट्रेल:- 14 नवंबर 2021 को मुझे मौका मिला की इस ट्रेल को पूरा किया जाए। मैं (देव प्रसाद) और विकास नैनवाल निकल पड़े अंजान सफर की तरफ। अंजान इसलिए क्योंकि इसके बारे में अब तक सुना ही था गया कभी नहीं था। आज मौका मिला था तो इसे मैं अच्छी तरह भुनाना चाहता था। किपलिंग ट्रेल का मार्ग 1860 में बना था। ये मसूरी जाने का सबसे पुराना ऐतिहासिक पैदल मार्ग है, जो अंग्रेज लेखक रुडयार्ड किप्लिंग ने खोजा था। इसी वजह से इसे किपलिंग ट्रेल कहा जाता है। इससे लोग करीब झड़ीपानी से करीब नौ किलोमीटर पैदल चलकर मसूरी जाते हैं। इस रास्ते की प्राकृतिक सुंदरता और शांति लोगों का सफर आसान बनाती थी माना जाता है कि 1880 के दशक में, उपन्यासकार रुडयार्ड किपलिंग ने इस मार्ग पर ट्रेकिंग की थी और उनके उपन्यास किम में वर्णित पैदल यात्रा इसी मार्ग से हुई थी। 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में एक डामर सड़क के निर्माण के साथ , मसूरी तक जाने के बाद , विरासत चलने का मार्ग धीरे-धीरे अनुकूल नहीं हो गया।
देहरादून में घंटाघर से कुछ कदम आगे जाने पर एस्टले हॉल के पास ही नीले रंग में 1 नम्बर का बिक्रम पकड़ा और उसने हम दोनों को राजपुर गांव तक छोड़ दिया। वह स्थान आखिरी स्टॉप है, वहां से बिक्रम वापिस हो जाता है। किराया भी काफी कम है, एक व्यक्ति का मात्र 20₹ वहां से एक रास्ता बाईं तरफ जाती है जो मसूरी की तरफ ही जाती है परंतु वो वाहनों के लिए है। राजपुर गांव से हल्की चढ़ाई शूरू हो जाती है। थोड़ी दूर पर ही बाईं तरफ कब्रिस्तान पड़ता है जो इस बात की पुष्टि करता है कि हम सही मार्ग में बढ़ रहे हैं। राजपुर से यह 9 किमी-ट्रेल को पूरा होने में 3 से 4 घंटे लगते हैं। किपलिंग ट्रेल का यह ट्रेक देहरादून ओल्ड मसूरी रोड पर स्थित शहंशाही आश्रम के पास से शुरू होता है। शहंशाही आश्रम की घंटाघर देहरादून से मोटर मार्ग दूरी 13 किलोमीटर है।
यह पांच खड़ी ढलानों के माध्यम से अपना रास्ता बनाता है जिसे स्थानीय रूप से पांच कैंची कहा जाता है। आधा रास्ता झड़ीपानी में है, जो क्वार्कस ल्यूकोट्रिचोफोरा या बंझ ओक के जंगलों से घिरा हुआ है। लगभग 30 डिग्री के झुकाव पर मध्यम वर्ग का चढ़ाई वाला ट्रेक है। मैं अपने साथी विकास नैनवाल के साथ सुबह 10 बजे इस किपलिंग ट्रेल की नींव रख दी। शहंशाही आश्रम से शुरू होने वाले किपलिंग ट्रेल ट्रेक को एक सामान्य व्यक्ति आसानी से 4-5 घंटे में तय कर सकता है। शहंशाही आश्रम से लगभग 3 किलोमीटर बाद ट्रेक का पहला पड़ाव झडिपानी गांव है जिसे तय करने में लगभग 2-3 घंटे का समय लगता है। पूरे ट्रेक के दौरान देहरादून घाटी के लुभावने दृश्य और हरे भरे प्राकृतिक नजारे ट्रेकर्स का मनोबल बनाये रखते हैं। बरसात के मौसम में नजारे और भी सुंदर हो जाते हैं। हमने जैसे ही इस इस ट्रैक की शुरुआत की तो देखा कि बच्चों की एक टोली हमारे पीछे से आ रही थी। वह पूरे गाजे बाजे के साथ आगे बढ़ रहे थे। उन्हें देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई कि आज बाल दिवस है इस तरह की गतिविधियों पर ध्यान दिया जा रहा है। मगर थोड़ी देर बाद ही निराशा के बादल ने घेर लिए जब देखा कि उसी रास्ते से होते हुए वो आगे दोमुहाने से शिखर फॉल जाने वाले रास्ते पर कट लिए।
मन मसोसकर कर रह गए लेकिन इस बात की सुखद अनुभूति भी थी कि वह इस मार्ग पर नहीं आये क्योंकि उन्हें इस ट्रेक को करने में पूरा दिन लग जाना था। लभी कुछ कदम आगे बढ़े ही थे कि देखा कुछ लोग झाड़ियों की तरफ मुख किए खड़े हैं। वहां पास आने पर उन्होंने रुकने का इशारा किया और एक डंडे के माध्यम से कुछ दिखाने की सार्थक कोशिश की। मैंने देखा कि एक काले रंग का सर्प था जिसके शरीर पर पीले रंग की धारी थी। दिखने में बहुत ही बढ़िया लग रहा था मानो जैसे किसी बच्चे ने रंगों की ब्रश भिगोकर उनमें रंग भरा हो। मैं इन्ही ख्यालों में खोया था कि तभी वह सर्प मेरे सामने से होता हुआ दूसरी झड़ी की तरफ भाग गया। यह देखकर मेरे हलक में प्राण आ गया। अभी मैं जिस सर्प की खूबसूरती की तारीफ किए बिना थक नहीं रह था वो सामने आने पर मेरी सांस रोक देगा ऐसा कभी नहीं सोचा था। तभी मेरे मित्र विकास नैनवाल ने बताया कि सर्प सर्दियों में अक्सर धूप सेंकने की प्रवृत्ति से अक्सर बाहर आ जाते हैं लेकिन वह किसी का तब तक नुकसान नहीं पहुंचाएंगे जब तक कि उनको छेड़ा न जाए। हम अब आगे बढ़ चले। रास्ता बिल्कुल प्राकृतिक है जो पथरीले रास्तों से हो कर Barlowganj पर भी ले जाया जाता है। वहां मौजूद सेंट जॉर्ज कॉलेज शान से किसी प्रहरी की भांति खड़ा दिखा। उसे देख कर मसूरी के गौरवशाली अतीत का पता चलता है। मार्ग के साथ एक पुरानी रेलवे सुरंग, एक असफल परियोजना के अवशेष और ब्रिटिश काल के विश्राम गृह भी मौजूद हैं। हम ठीक 3 बजे मसूरी पहुचं चुके थे। हमने रास्ते मे कई दफा चाय और मैग्गी खाने के साथ जगह जगह उन पहाड़ों, झरनों और खुले आसमानों का लुत्फ उठाया था जिसकी वजह से कुछ अधिक समय लग गया। हल्का फुल्का लंच करने के बाद ठीक 4 बजे हम वपीसी के लिए चल पड़े। वपीसी में हमने झड़ीपानी में एक दुकान पर चाय पी ताकि शरीर मे गर्मी बनी रहे। लेकिन हमें इसका ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि इतनी जल्दी अंधेरा घिर आएगा। आखिर ठंड का वक़्त जो था तो ऐसा होना लाजिमी था। शाम के 6:00 बजे का वक़्त हो चला था और पूरा जंगल स्याह चादरों से ढक गया था। वो गो शुक्र है कि मैं सो मोबाइल ले कर चला था जिसकी वजह से मोबाइल की बैटरी अभी शेष थी।
मैंने जैसे ही मोबाइल का फ्लैशलाइट जलाया तो मैं चौंक गया विकास भाई अपने दोनो हाथों में दो बड़े पत्थर जकड़े खड़े थे। उन्होंने कहा कि हमें अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी। यहां आस पास का समूचा इलाका आदमखोर बाघों से परिचित है इसलिए हमें अपने जल्दी जल्दी कदम चलाने होंगे। मैंने उनकी वो पत्थरों वाली तस्वीर भी यहां साझा की है। उनकी यह बात सुनते ही मेरे कदम में जैसे फेरारी की इंजन लग गयी। हम दोनों लगभग दौड़कर चलने लगे। कभी कभी विकास भाई पीछे भी मुड़कर देखने लगते की कहीं वह बाघ पीछे से तो नही आ रहा। दोनो बड़ी सूझबूझ के साथ इकट्ठे ही बढ़े जा रहे थे। परंतु मुझे यह भय भी सता रहा था कि मैं झाड़ी की तरफ रहा तो मुझे बाघ झपट कर अपने पंजो में पहले दबोच लेगा। मैं झट से अपनी जगह बदलकर दूसरी तरफ चला जाता। मैं जैसे ही उस तरफ गया तभी मेरे दिमाग मे यह सवाल आया कि कहीं ऐसा तो नहीं की बाघ झाड़ियों से छलांग मरता हुआ आये और मुझे अपने जबड़े में जकड़ता हुआ नीचे ले कर भाग जाए। इस अनजाने खौफ़ से मैं कभी आगे भागने लगे जाता और विकास भाई भी मेरे साथ अपनी गति बढ़ा देते। झींगुरों की आवाज भी रह रहकर रौंगटे खड़े कर रहे थे। मन में अनायास ही विचार आने लगते की भला यह इस अंधेरे में क्यों चीख रहे कहीं यह बाघ को हमारे यहां होने की न्योता तो नही दे रहे।
काटो तो खून नहीं वाली परिस्थितियों से दोनो गुजर रहे थे। आज मोबाइल की फ़्लैशलाइट हमारे लिए मशीहा बना हुआ था। कुछ देर में झरनों की आवाज से कुछ राहत मिली कि अब बस कुछ देर की बात है फिर हम घनी आबादी की क्षेत्र में होंगे। परंतु विकास भाई का यह कहना कि बाघ झरने के पास रात को पानी की तलाश में अक्सर आ जाया करते हैं। यह सुनते मेरे तोते उड़ गए थे। शायद उनकी बातों का ही असर था कि हम 8 बजे अपने घर मे सुरक्षित पहुँच चुके थे। मैं अभी भी इस बात को स्पष्ट तरीक़े से नहीं समझ पाया हूँ कि वो बाघ वाली बात उन्होंने जान बूझ के कही थी ताकि हमारी चाल तेज हो और हम जल्दी से उस जंगल वाला इलाके को बिना खतरे के पार कर सकें। कुल मिलाकर यह यात्रा बहुत सुखद रही जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
जरूरी सलाह:- 1) बैकपैक की बात करें तो सबसे पहले पानी की बोतल को प्राथमिकता दें और रास्ते में पानी दो-दो घूंट ही पिएं। अन्यथा पेट भारी हो जाएगा या पानी जल्द खत्म होने की उम्मीद हो जाएगी। अपने साथ कुरकुरे का पैकेट्स रखें ताकि जब जी मचलाये तो इसे खाने के बाद अपना मूड सही कर सकें। 2) झडिपानी के बाद आपको कुछ दुकानें भी मिलेंगी जहां आप मैग्गी और चाय का आनंद ले सकते हैं। बाकी जहां भी किसी रास्ते को ले कर शंका हो तो बिना पूछे नए रास्ते को न बदलें। उम्मीद है आपको भी वही लुत्फ आएगा जो हमें आया।

किपलिंग ट्रेल:- 14 नवंबर 2021 को मुझे मौका मिला की इस ट्रेल को पूरा किया जाए। मैं (देव प्रसाद) और विकास नैनवाल निकल पड़े अंजान सफर की तरफ।...